यूरोपीय देश स्कॉटलैंड के ग्लासगो शहर में संयुक्त राष्ट्र वैश्विक जलवायु सम्मेलन कॉन्फ्रेंस ऑफ़ पार्टीज यानि COP-26 सम्मलेन की शुरुआत 31 अक्टूबर हो चुका था और विश्व के तमाम देशों के प्रीमियर के बिच पर्यावरण को लेकर मंथन जारी था और इसका अंत 13 नवंबर 2021 को हुआ,अगर हम जलवायु परिवर्तन को लेकर COP-21 पैरिस समझौते 2015 के नज़रिए से देखे तो इस सम्मलेन को काफी महत्वपूर्ण माना गया था।
इस सम्मलेन को भारत की तरफ से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सम्मेलन को संबोधित किए, सम्मेलन में प्राकृतिक आपदा,वैश्विक तापन,नेट जीरो उत्सर्जन जैसे तमाम पहलुओं पर चर्चा भी की गयी
IPCC की रिपोर्ट में जलवायु परिवर्तन को लेकर जताई गयी आशंकाओं को लेकर दुनियाभर के नेताओं ने मंथन किया और इस बैठक में पेरिस समझौते की प्रगति पर भी बात हुई और यह भी चर्चा हुए की विश्व के देश तापमान को कम करने की दिशा मेंक्या और कैसा कदम उठाएंगे,साथ ही विकसित देशों द्वारा टाले जा रहे विकासशील देशों के मदद लिए दिए जाने वाली सहायता कोष पर भी हुई जिसका भारत ने बड़े स्पष्ट अंदाज में समर्थन किया पर कोई माकूल जवाब नहीं मिल पाया,और मै जहा तक समझाता हु हर साल की तरह सभी राष्ट्रों ने अपनी कमियों को छुपाया और अपने लक्ष्यों को टाला,है ये बात दीगर है की प्रधानमंत्री ने इस वैश्विक मंच से विश्व के बीच अपन खास पैगाम छोड़ दिए है जिसे मानना या न मानना अब उनके हाथों में है।
इस सम्मलेन के परिणाम पर संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियों गुटेरेस ने कहा है कि, विश्व के तमाम प्रतिभागी जलवायु परिवर्तन के महत्वपूर्ण लक्ष्यों को लेकर एक नहीं हो पाएं।
इन सब बातों की जड़ों तक पहुंचने में एक क्रोनोलॉजी(घटनाक्रम/कालक्रम) को समझना बहुत जरुरी है क्योकि इसके पीछे कुछ बेसिक संस्थाएं और उनके द्वारा समय समय पर किये गए कार्य और सम्मलेन रहे है। सबसे पहले समझते है की
कॉन्फ्रेंस आफ पार्टीज क्या है——— यह जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र का एक कन्वेंशन है जिसे यूएनएफसीसीसी यूनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज कहते है,जलवायु परिवर्तन पर यह पहला बहुपक्षीय सम्मलेन था यानि यह पहला मौका था जब दुनिया के कई देश व्यापक पैमाने पर जलवायु परिवर्तन की चिंताओं को लेकर एकसाथ बैठे थे। इसे हम सभी पृथ्वी शिखर सम्मेलन या रियो सम्मलेन का एक कन्वेंशन कहते है।
जब1992 में ब्राजील के रियो डी जेनेरियो में पृथ्वी शिखर सम्मेलन का आयोजन किया गया तब तीन कन्वेंशन की घोषणा की गयी थी ये तीन कन्वेंशंस थे- सीवीडी(CBD) अर्थात कन्वेंशन ऑन बायोलॉजिकल डायवर्सिटी,UNCCD अर्थात यूनाइटेड नेशंस कन्वेंशन टू कॉम्बैट डेसर्टीफिकेशन और UNFCCC अर्थात द यूनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज।
इस UNFCCC का उद्देश्य जलवायु तंत्र के साथ साथ प्रकृति में खतरनाक मानवीय दखल को रोकना था,यह कन्वेंशन 21 मार्च 1994 से प्रभाव में आया है,इसा समय विश्व के 197 देश इसके सदस्य है जिन्हे हम कॉन्फ्रेंस ऑफ़ पार्टीज(COP) भी कहलाते है,इन्ही देशों की जलवायु परिवर्तन पर वार्षिक बैठक को हम कॉप के नाम से जानते हैं UNFCCCका पहला कॉप सम्मेलन 1995 में जर्मनी के शहर बैर्लिन में हुआ था, यही ओ समय था जब पूरा विश्व जलवायु परिवर्तन से डरा और चिंतन में जुटा और डर ऐसा हुआ की सभी मिलकर अबतक 26 बैठके कर गए परन्तु अभी तक किसी सॉलिड/स्थायी समाधान पर नहीं पहुंच सके या यो कहिये की ऊपरी दिखावे के साथ सभी मिलते है परन्तु नतीजों तक नहीं पहुंचते। ले देकर किसी तरह पेरिस समझौते बनाये और इसे ही आज तक नज़ीर की तरह लेकर चल रहे है परन्तु विडम्बना यह है की उससे आगे नहीं देख पा रहे है। इस नए रूप को दुनिया के 196 देशों ने माना और लगे हाथ घोषणा भी कर दिए की क्सिसि भी हालत में इस सदी के अंत तक वैश्विक तापन को 2 डिग्री सेंटीग्रेट से निचे रखना है,लेकिन इसमें एक बात जो थी की हर देश होने लिए ऐक्षिक लक्ष्यों का निर्धारण कर सकते है जिसे आप मजबूत कदम के साथ साथ ही तकलने वाला कदम भी कह सकते है क्यों की यहाँ लक्ष्यो को टालने का एक अवसर जरुर मिल जाता है जैसे कोई कह रहा है की हम अपने लक्ष्यों तक 2050 तक पहुंचेंगे तो कोई यहाँ 2070 तक पहुंचेगा,और उसमे भी सबसे बड़ी बाधा विकसित और विकासशील देशो के मध्य चल रहे अतर्द्वन्द्व से है
पेरिस समझौते में प्रावधान है कि विकसित देश जलवायु परिवर्तन के अनुकूल नवीकरणीय ऊर्जा को बढ़ावा देने हेतु आर्थिक रूप कमजोर देशों को जलवायु वित्त मुहैय्या करवाएंगे जिसके अंतर्गत विक्सित देश,विकाशील देशो को वार्षिक तौर पर 100 बिलियन डॉलर देंगे। इन सब के बीच इसी वर्ष अगस्त में प्रकाशित IPCC की रिपोर्ट में कुछ ऐसे तथ्यों को सामने रखा जिसने COP-26 के लिए एक मंच तैयार कर दिया।
अब थोड़ा समझते है की IPCC की रिपोर्ट क्या होती है–इसे इंटरगवर्नमेंटल पैनेल ऑन क्लाइमेट चेंज जिसकी स्थापना संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम और विश्व मौसम विज्ञानं संगठन द्वारा 1988 में किया गया था। यह जलवायु परिवर्तन पर नियमित वैज्ञानिक आंकलन इसके निहितार्थ और भविष्य के संभावित जोखिमों के बारे में तथा अनुकूलन और जलवायुविक जोखिमों को काम करने के उपायों एवं विकल्पों को बताता है। हॉल के रिपोर्ट में कहा गया की समुंद्र के जल स्तर के बढ़ने की तीव्रता 1901 से 1973 तक तीन गुनी बढ़ी है वही आर्कटिक सागर के बर्फ पिछले 1000 सैलून में सबसे कम हुवे।जिसका प्रभाव हमें आज तटीय क्षेत्रों में देखने को मिलते है साथ ही निचले इलाकों में बाढ़ की समस्या लगातार बढती ही जा रही है।
रिपोर्ट ने कहा है की हर अतिरिक्त 0.5 डिग्री की वृद्धि से गर्मी,अत्यधिक वर्षा और साथ साथ सूखे में वृद्धि हुई है। इन सबके का कारन पर्यावरण में मानवीय हस्तक्षेप को जिम्मेदार मन गया है। और इसको तभी रोका जा सकता है जब वैश्विक स्तर पर कार्बन उत्सर्जन को निम्न कर दिया जाय इसके लिए सभी मिलकर 2050 तक कार्बन उत्सर्जन शून्य किया जाय अर्थात नेट जीरो किया जाय।
अब यहाँ थोड़ा समझते है कि नेट जीरो उत्सर्जन क्या है–जलवायु परिवर्तन के लिए CFC यानि क्लोरो फ्लोरो कार्बोन ग्रीन हाउस गैस जिम्मेदार है, नेट जीरो ऐसी स्थिति है जिसमे कोई देश ग्रीन हाउस गैसों का जितना उत्सर्जन करता है उतना ही उसे कंज्यूम/सोख भी रहा है और उसे हटा भी दे रहा है। इसका मतलब यहाँ हुवा की वह देश ग्रेन हाउस गैस की वृद्धि में किसी तरह का योगदान नहीं दे रहा है। सोखने के लिए ज़रूरी है ज्यादे से ज्यादे कॉर्बन सिंक का निर्माण किया जाये जैसे पेड़ पौधे,वन इत्यादि जबकि गैसों को हटाने के लिए कॉर्बन कैप्चर और स्टोरेज जैसी भविष्य की तकनीकों की जरुरत पड़ेगी।
अगर हम देखे तो एक देश भूटान ऐसा देश है जो नकारात्मक उत्सर्जन करता है क्योकि यह उत्सर्जन से ज्यादे अवशोषण करता है।
ऐसे कहा है की विश्व को 2050 तक शून्य कार्बन उत्सर्जक देश बनना चाहिए इसीलिए अधिकतर देश पिछले दो वर्षों से हस्ताक्षर अभियान चला रहे है।
और यह एक मात्र तरीका भी माना जा रहा है की किसी तरह तापमान 2 के नीचे रखना है।
देखा जाय तो भारत, चीन और अमेरिका के बाद तीसरा सबसे बड़ा उत्सर्जक देश है।
ऐसे में इस मंच के माध्यम से सारे देश इन सब मुद्दों पर कैसे एक होंगे। और यह सबसे अच्छी बात रही की सरे देश मिलकर एक समझौते तक पहुंचने का प्रयास भी किये है,जिसे ग्लास्गो क्लाइमेट पैक्ट के रूप में जाना जा रहा है। क्योकि COP-26 का जो मुख्य कार्य रहा ओ पेरिस समझौते के कार्यान्वयन के लिए नियमों और प्रक्रियाओं को अंतिम रूप देना।
इस समझौते के तहत विकसीत देशों द्वारा अब तक 100 बिलियन डॉलर न दिए जाने पर असंतोष व्यक्त किया गया है।
इसके अलावे 2025 के बाद 100 बिलियन डॉलर से भी अधिक जलवायु वित्त के लिए नया लक्ष्य निर्धारित करने पर चर्चा।
दिए जाने वाले धन को पारदर्शी कैसे बनायीं जाय।
इन सबके बीच हम देखेंगे की इस समझौते से क्या मिला है-
शमन(MITIGATION):2030 तक देशों द्वारा जलवायु कार्य योजना मजबूत करना।
शमन को बढ़ने के लिए एक योजना की स्थापना करना।
साथ ही मंत्रियों के वार्षिक बैठक का आयोजन करना ताकि इस पर व्यापक नज़र रखी जा सके।
कोयले के उपयोग को कम करना तथा जीवाश्म ईंधन को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करना।
हो सके तो जीवाश्म ईंधन की सब्सिडी को समाप्त कर दिया जाय।
अनुकूलन(ADAPTATION)-छोटे और गरीब देशों के साथ द्वीपीय देशों को पर्यावरण अनुकूलन के लायक बनाना।
तत्काल वित्त,प्रौद्योगिकी एवं क्षमता निर्माण की जरुरत को पूरा करना।
विकसित देशों को 2019 के स्तर से 2025 तक अनुकूलन के लिए दी जाने वाली वित्तीय राशि को दोगुना करना,इस क्रम में देखे तो 2019 में केवल 15 बिलियन डॉलर ही दिया गया था।
वित्त(FINANCE):ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में विकसित देशों की जिम्मेदारी ज्यादे रही है तो जिम्मेदारी भी होनी चाहिए।
वित्त और प्रौद्योगिकी प्रदान करना नितांत जरुरत है।
2020 से प्रति वर्ष 100 बिलियन डॉलर देने का वादा परन्तु अभी तक ऐसा हो नहीं पाया है.
और इसी धनराशि को 2025 तक दोगुना करने की बात भी पेरिस समझौते में की गयी थी।
इस पर एक बात जरूर सामने आयी है कि विकसित देश 2023 तक इस धनराशि की व्यवस्था करेंगे।
नुकसान एवं क्षति-जलवायुविक आपदाओं का बढ़ना जिसका प्रभाव सबसे ज्यादे गरीब व छोटे देशो पर।
पुनर्वास,राहत और नुकसान की भरपाई के लिए कोई संस्थागत तंत्र की व्यवस्था नहीं।
ऐसी गतिविधियों के वित्त पोषण की व्यवस्था पर चर्चा के लिए संवाद तंत्र की स्थापना।
COP-26 सम्मलेन में इस समस्या को स्वीकार किया गया है।
कॉर्बन बाजार-क्योटो प्रोटोकाल में इस स्वीकारा गया था,जबकि पेरिस समझौते के तहत अभी तक किसी की शुरुआत नहीं हो पायी है।
ऐसे में भारत,चीन,ब्राज़ील जैसे देशो केपास मांग न होने के कारण बहुत सारा कॉर्बन क्रेडिट बचा हुवा है हलाकि इस पर विकसित राष्ट्रों ने इनके एकत्रित कार्बन क्रेडिट के गुणवत्ता पर सवाल खड़ा किया है। हालाकि विकासशील देशो द्वारा इन क्रेडिटों का उपयोग अपने पहले NDC लक्ष्यों को पूरा करने में उपयोग कर सकते है लेकिन बाद में तय NDC लक्ष्यों को पूरा करने में इनका उपयोग संभव नहीं होगा।
इस सम्मलेन में जो मुद्दे छूट गए ओ थे –कोयले की समस्या का हल-हालांकि अभी भी भारत सहित कई देश इस स्थिति में नहीं की ओ पूर्ण रूप से इससे छुटकारा पा सके।कॉर्बन क्रेडिट केवल 2025 तक लागु रहेगा,और वित्त के लिए कोई स्पष्ट जवाबदेही नहीं।
इस सम्मलेन में भारत ने अपने क्या लक्ष्य रखें –प्रधानमंत्री ने विश्व पटल पर भारत की ओर से पंचामृत की घोषणा की जिसके अंतर्गत-
क्या है प्रधानमंत्री की पंचामृत प्रस्ताव-:भारत 2030 तक गैर जीवाश्म ऊर्जा क्षमता को बढाकर 500 गीगावॉट करेगा।
:भारत 2030 तक अपनी ऊर्जा जरुरत का 50% नवीकरणीय ऊर्जा से प्राप्त करेगा।
:भारत 2030 तक कुल कार्बन उत्सर्जन में एक अरब टन की कटौती करेगा।
:भारत 2030 तक अपनी अर्थव्यस्था के कार्बन तीव्रता(Co2 की ग्राम में संख्या जब एक यूनिट बिजली बनायीं जाती है ) को 45% काम कर देगा।
:भारत 2070 तक नेट जीरो उत्सर्जन का लक्ष्य हासिल कर लेगा,जिसका अर्थ है कार्बन डाई ऑक्साइड के उत्सर्जन को पूरी तरह से खत्म कर देना। हालाँकि पंचामृत लक्ष्य पेरिस समझौते(2015) के ंड़क के हिस्से नहीं थे।
अभी भारत कि स्थिति क्या है-भारत विश्व के प्रमुख कार्बन उत्सर्जकों में से एक है अभी भारत तीसरे स्थान पर है जबकि चीन प्रथम,usa दूसरे स्थान पर है।
विस्तृत जानकारी के लिए क्लिक करें-प्रधानमंत्री ने COP-26 सम्मलेन में पांच वादे”पंचामृत” नाम से किये
आगे की राह- सबसे पहले वैश्विक सम्बन्ध को एक कदम आगे ले जाना होगा क्योकि यह किसी एक देश कि समस्या नहीं है बल्कि पूरे विश्व की समस्या है इसलिए जरूरी है कि बड़े देश छोटे देशों को साथ में लेके चलें क्योकि वैश्विक तापन का प्रभाव सभी पर होना है,इसके अतिरिक्त तय समय में इनके लिए वित्त की व्यवस्था भी करने ताकि ये भी स्वालम्बन के साथ समस्या के निराकरण में अपनी भागीदारी को समझ सकें।
इसका असर नीतियों के निर्माण और क्रियान्वयन पर भी पड़ेगा, क्योंकि अगर नीतियां पर्यावरण हितैसी नहीं होगी तो फिर इस तरह की समस्या से निजात पाना बहुत कठिन होगा। ऐसे में हर देश अपनी प्रगति के मापन को सही ढंग से करना होगा उन्हें किस तरह का औद्योगीकरण करना है, यातायात किस तरह का होगा,जीवाश्म ईंधन को एकदम कम कैसे करना है,अन्य माध्यमों से ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन को कैसे रोकना है,वृक्षावरण को कैसे ठीक करना है इत्यादि तमाम ऐसे मुद्दे है जिनके लिए ठोस और सारगर्भित नीतियों का निर्माण करना है।
हमेशा की तरह कुछ पाने के से ज्यादे कुछ खोने जैसे रहे है ये सम्मलेन क्योकि तर्कों की कोई सीमा नहीं है चिंता सभी को होती है परन्तु क्रियान्वयन किसी किसी द्वारा,ऐसे में जलवायु परिवर्तन से निपटने के इरादे में अधिक महत्वाकांक्षा है लेकिन ठोस कार्रवाइयों के संदर्भ में दिखाने के लिए बहुत कम है। इन्हें भविष्य के विचार-विमर्श के लिए टाल दिया गया है। अगले साल एक बैठक में संवर्धित राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (एनडीसी) की घोषणा किए जाने की उम्मीद है।
निष्कर्ष-हम कह सकते हैकि ग्लास्गो सम्मलेन एक आधा अधूरा प्रयास रहा है पर्यावरण पर फिर भी कुछ कदम ऐसे दिखे है जिनसे वनो की कटाई और हानिकारक मीथेन उत्सर्जन को रोकने की ओर चलें है। एक दिन अधिक चलने वाले इस सम्मलेन में भारत चीन के हस्तक्षेप पर कुछ संसोधन भी हुए जिसमे कोयले को चरणबद्ध तरीके से बंद करने की बात कही गयी है। वित्त को लेकर एक दावा है जो यथाशीघ्र पूरा करना पड़ेगा ताकि सभी मिलकर इन समस्यों से निजात पा सके वर्ना मिस्र सम्मलेन में एक बार फिर से यही प्रश्न खड़े होंगे और जवाब के लिए और एक सम्मलेन का इंतजार करना होगा।
क्लिक करें- COP-26 ग्लास्गो
बहुत बिस्तार से जानने को मिला cop-26
और इससे जुड़ी सारि जानकारी आसान भाषा मे 😊
Thank you team GK VIDYA